Friday, August 21, 2009

हवाई अड्डो पर केवल अंग्रेजी की ही पुस्तकों की दूकान दिखाई देती है . ऐसा क्यों

बहुत दिनों से मुझे एक बात खटक रही थी । जब भी मैं विमान से यात्रा करता हूं और भारतीय हवाई अड्डो में थोडा बहुत समय बिताने का अवसर मिलता है तो वहा की किताबो की दूकान की तरफ़ जब जाता हूं तो यही देखता हूं की हमारे देश के सभी हवाई अड्डो पर जितनी भी किताबो की दुकाने लगी हुई हैं वे सब केवल अंग्रेजी की ही पुस्तके और पत्रिकाए बेचती हैं । इनमे सभी तरह की पुस्तके सभी विषयो की विपुल संख्या में मिलती
हैं । जैसे अंग्रेजी के उपन्यास, कहानी संग्रह, जीवनी साहित्य, अंग्रेजी क्लासिक उपन्यास ( साहित्यिक और लोकप्रिय ) जिनको बस्ता सेल्लर कहा जाता है, प्रबंधन, इतिहास , विभिन्न शहरों और विभिन्न देशों के लिए पर्यटन गाइड, फैशन और पाक कला पर ढेर सारी पुस्तकें, नाना तरह के सौंदर्य वृद्धि के उपायों और साधनों पर पुस्तके यहां भारी हुई दिखाई देती हैं । ज़ाहिर है की यहां इस तरह की किताबे खरीदने वालों की भी शायद कमी नहीं है । गौर तलब सच्चाई यहाँ है कि अचानक लगता है कि क्या हम किसी विदेशी शहर के हवाई अड्डे पर खड़े हैं ? एक भी हिन्दी या एनी भारतीय भाषाओं की एक भी पत्रिका या पुस्तक ( उपन्यास या कहानी या अन्य विषयो की ) बिक्री के लिई नही रखी जाती । सारा स्टाल अंग्रेजी मय ही होता है । भारतीय हवाई अड्डो पर अंतर्देशीय यात्राओं पर तो भारतीय ही अधिक यात्राए करते हैं . विदेशी यात्री भी होते हैं लेकिन भारतीयों की आवश्यकता क्या भारतीय भाषाओं में रचित पत्रिकाओ और पुस्तकों की नही ? हमारे हवाई अड्डो को एक विचित्र विदेशी सांस्कृतिक बाना पहनाया जा रहा है /जा चुका है । अंग्रेजी रंगत और ने हमारी न्यूनतम पहचान भी मिटाने को तुली हुई है । बड़ी मुश्किल से हिन्दी में इंडिया - टुडे या आउटलुक पत्रिका कभी कभार मिला जाती है वरना वह भी नही मिलाती । हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं के कथा साहित्य की बात तो बहुत दूर की है । कितनी विडम्बना है यह । इसके समक्ष रेलवे स्टेशनों में स्थिति बेहतर है । वहां हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं की पत्र पत्रिकाओं के साथ हिन्दी कथा साहित्य का भंडार मिलेगा । ( भले ही वह सस्ता साहत्य हो - साहित्यिक कृतियाँ बहुत कम मिलती हैं ) लेकिन फ़िर भी भारतीय यात्रियों के लिए अपनी भाषाओं में कुछ तो उपलब्ध है । तो क्या भारत में रेल यात्रियों का सामाजिक और संस्कृतिक दर्जा/वर्चस्व विमान यात्रियों के तथा कथित आभिजात्य वादी संस्कारों से दोयम का दर्जे का है ? या क्या सारे विमान यात्री अंग्रेजी के ही पाठक होते हैं - भारत में ? क्या ये हवाई अड्डे भारतीय नही हैं ? हमारे ही देश में सार्वजनिक स्थलों में हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं की पाठ्य सामग्री क्यो उपलब्ध नही होती है ? यह एक विचारणीय विषय है .

Monday, August 17, 2009

टी वी रिएलिटी शो - सच का सामना - का सच

टी वी धारावाहिक -सच का सामना -
पश्चिम में लोग भूखे रहने के लिए, हंसने के लिए, रोने के लिए, बेइज्ज़त होने के लिए, हिंसा का मजा चखने के लिए, आतंकित होने के लिए, भयभीत होने के लिए, दरिद्रता का आनंद लेने के लिए , दुखों का स्वाद चखने के लिए, भूत - प्रेतों के खौफ का अनुभव करने के लिए, घोर अमानवीय कारागारों में बंद कैदियों के नारकीय जीवन की अनुभूति प्राप्त करने के लिए - प्रायोजित और कृत्रिम रूप से तैयार किये गए आयोजनों का सहारा लेते हैं . इन प्रायोजित कार्यक्रमों में स्वयं को नंगा करके दुनिया वालो के सामने अपनी नग्नता का प्रदर्शन करने का भी एक कार्यक्रम होता है .इसा प्रकार के कार्यक्रम पश्चिम में बहुत चर्चित और लोकप्रिय होते हैं . यह मनुष्य का एक आत्मपीड़क स्वरूप है . आत्मपीडन भी मनोवैज्ञानिक रूप से व्यक्ति को एक विशेष प्रकार का आनंद प्रदान करता है . भारत में प्रर्दशित टी वी धारावाहिक - सच का सामना भी एक ऐसा ही -आत्मपीड़क और परपीड़क - धारावाहिक है .जिसमे परहना पूछने वाला परपीड़क और उत्तर देने वाला आत्मपीड़क है .दोनों ही अपने अपने स्तर पर इस पूरी असामाजिक प्रक्रिया का आनंद या लुत्फ़ उठा रहे हैं . दर्शक सहमे सहमे से अपने जिसम और अपनी आत्मा को छिपाने के प्रयास में अपनी पहचान खो बैठे हैं .इस मुद्दे को जब संसद में उठाया गया और उस धारावाहिक के निर्माताओं से पूछ ताछ की गयी तो निर्माता का उत्तर और भी चौंका देने वाला निकला . निर्माता महोदय का तर्क यह है कि कार्यक्रम में भाग लेने वाले लोगों को इस प्रतियोगिता के नियम मालूम हैं और वे नियमों को जानते हुई ही पैसों के लिए स्वयं को टी वी के परदे पर भावनात्मक और व्यक्तिगत धरातल पर अनावृत्त होने के लिए तैयार होकर ही आते हैं . आश्चर्य इस बात का है कि अभी तक किसी भी प्रतिभागी ने इस कार्यक्रम का विरोध नही किया है . धीरे धीरे हमेशा की तरह भारतीय जनता जिस तरह समाज की अन्य बुराईयों से जैसे समझौता कर लेती है उसी प्रकार इस धारावाहिक को भी स्वीकार करने के लिए मजबूर हो चुकी है . आजकल नई पीढी की एक यह भी है कि उन पर नैतिक पहरेदारी न की जाए . हर व्यक्ति अपनी नैतिक जिम्मेदारी को बखूबी समझता है . इस सारे प्रकरण को वैयक्तिक हस्तक्षेप का मामला बनाकर इस पर बहस भी ख़त्म कर दी जाएगी . बहस तो शायद ख़त्म हो ही गई है . आज हमारे देश में किसी को इन बातों से कोई सरोकार ही नही है .अपनी भाषा, संस्कृति, साहित्य, संगीत, पहनावा, खान पान, मान मर्यादा की बाते - पिछडापन और सभ्यता विरोधी लगती हैं . एक यही धारावाहिक नहीं बल्कि आज टी वी में जितने भी निजी - विदेशी चैनेल प्रसारण करा रहे हैं उनके सारे कार्यक्रम अश्लीलता से भरे हुए हैं और भारतीयता को खुले आम ठेंगा दिखा रहे हैं . समाचार चैनलों में भी बोलीवुड का फिल्मी मसाला भरा पडा रहता है . अब समाचार चैनल केवल समाचार तक ही सीमित न होकर सस्ते और फूहड़ मनोरंजन का बाज़ार बना गए हैं . इस पर कौन विचार करेगा ?
सच का सामना - ब्लाग में गलती से टी वी शब्द के साथ इ अक्षर अतिरिक्त आ गया है । कृपया ध्यान न दे । नई पीढी की जगह कई पीढी छापा गया है इसे भी ठीक तरह से - नई पीढी- ही पढें .
धन्यवाद ।
एम वेंकटेश्वर

Wednesday, August 5, 2009

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ने अपने दो पत्रकारों को उत्तर कोरिया से छुडाया

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और उनके साथियों ने अमरीकी सरकार की एक अभूत पूर्व कूटनीतिक प्रयासों के माध्यम से अपने दो पत्रकारों को जो उत्तर कोरिया में पिछले १४० दिनों से बंधक बना कर रखे गए थे जिनको वहां की सरकार ने अनधिकृत रूप से सीमा पार करने के आरोप में पकड़ लिया था, उन्हें उत्तर कोरिया जाकर, वहा की सरकार से कूटनीतिक बातचीत द्वारा मनाकर अपने साथ विशेष हवाई जहाज द्वारा उन दोनों पहिला पत्रकारों के लेकर स्वदेश पहुंचे । अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की जितनी सराहना की जाए कम है । क्या हमारे देश में ऐसे कारनामे होते हैं ? हमारे देश के कितनी ही निर्दोष सैनिक और नागरिक पाकिस्तानी जेलों में बरसों से सदा रही हैं लेकिन आज तक हमारी सराकर उनके लिए कुछ भी नहीं कर पाई है । हमारी सरकार के पास हमारे देशवासियों की जान की कोई कीमत ही नही है । क्या हमारे दशा का कोई मंत्री भी लोगों की जान बचाने के लिए कभी भी इस तरह से आगे आयेगा । मुम्बई गुजरात और दशा के अन्य हिस्सों में सैकडो और
हाजारो लोगो की जाने गई, लेकिन क्या आज तक हमारी सरकार ने उनके बारे में कभी कुछ सोचा ? हमारे दशा में आम आदमी की जान की कीमत कुछ भी नहीं है । काश हामरी सराकर आज के अमरीकी सरकार और बिल क्लिंटन के इस मानवतावादी आचरण से कुछ सीख लेते ।