Tuesday, November 9, 2010

अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय में ' शोध पत्रिका - ' समुच्चय' का लोकार्पण समारोह संपन्न

अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के हिन्दी एवं भारत अध्ययन विभाग द्वारा सद्य: प्रकाशित शोध पत्रिका ' समुच्चय' का लोकार्पण समारोह विश्वविद्यालय के प्रांगन में संपन्न हुआ। विश्वविद्यालय के पूर्व-कुलपति प्रो अभय मोर्य ने समुच्चय - पत्रिका लोकार्पण किया। समारोह में समुच्चय की समीक्षा उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के अध्यक्ष प्रो ऋषभदेव शर्मा ने किया। शिक्षण एवं शोध संस्थानों द्वारा प्रकाशित शोध पत्रिकाओं की उपयोगिता तथा महत्व और आवश्यकता - विषय पर स्वतंत्र वार्ता - दैनिक (हिंदी ) के संपादक डा राधेश्याम जी शुक्ल ने सारगर्भित भाषण दिया। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के अंतर-अनुशासनिक अध्ययन संकाय के अधिष्ठाता प्रो माधव प्रसाद ने किया। कार्यक्रम का संयोजन एवं संचालन हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग के अध्यक्ष - प्रो एम वेंकटेश्वर ने किया। कार्यक्रम में विश्वविद्यालय के छात्र तथा अन्य महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के छात्र तथा प्राध्यापक बड़ी संख्या में उपस्थित थे। सभागार पूरी तरह से भरा हुआ था। किसी भी पुस्तक लोकार्पण समारोह में छात्रों और प्राध्यापकों ऐसा जमावड़ा विरले ही पाया जाता है। कार्यक्रम के मुख्य आकर्षण प्रो अभय मोर्य रहे - जो यहाँ के छात्रों के प्रिय कुलपति रहे। वे एक बहुत ही कुशल प्रशासक, कर्मठ शिक्षक, अनुशासनबद्ध शिक्षाविद के रूप में विश्वविद्यालय परिसर में पहचाने जाते हैं। उंकी छवि विश्वविद्यालय में बहुत ही लोकप्रिय कुलपति के रूप में विद्यमान है। अनेक छात्र संगठनों उनके आगमन पर स्वागत में बैनर लगाए । बड़ी संख्या में पूर्व छात्र उनसे भेंट करने केलिए सभागार में पहुंचे। हिन्दी विभाग के एक वर्ष के पूरे होने के अवसर पर यह समारोह आयोजित किया गया था। विभाग के छात्र और प्राध्यापकों का सम्मिल्लित प्रयास रहा है। हिन्दी विभाग की स्थापना के एक वर्ष के उअपरांत यह बीते वर्ष की उपलब्धियों के आकलन का अवसर था यह। प्रो मोर्य ने इस विभाग की स्थापना अपने सत्प्रयासों से की थी। और छोड़ पत्रिका ' समुच्चय' के प्रकाशन का विचार भी उन्हीं का प्रदान किया गया था। वे विभाग के प्राध्यापकों द्वारा निरंतर शोध लेखन पर बल दिया करते थे ।उनके इस प्रोत्साहन को विश्वविद्यालय के अनेक लोग केवल एक जुनून या एक सनक मानते थे । इसीलिए कुछ बड़े विभागों ( जैसे - अंग्रेज़ी ) ने उनके इस प्रस्ताव की उपेक्षा की । इस व्यवहार से प्रो मोर्य क्षुब्ध रहे । उनकी अकादमिक दृष्टि बहुत दूरगामी थी और वे इस विश्वविद्यालय को उत्कृष्टता की बुलंदियों पर स्थापित करना चाहते थे। लेकिन उनको अंतत: निराशा ही हुई। । उनकी योजनाओं को उनके प्रस्थान के बाद लोगों ने ठंडे बस्ते में डाल दिया, यहाँ तक कि जिन कार्यों को उन्होंने प्रारम्भ किया था उन कार्यों को भी आज तक पूरा नहीं किया गया। वे वर्तमान प्रशासन से रुष्ट थे, और बहुत तीखी प्रतिक्रया भी उन्होंने की । छात्रावासों के रख रखाव , निर्माण आदि को लेकर
वे चिंतित थे।अपने असंतोष और गहरे दुःख को उन्होंने अपने लोकार्पण भाषण में व्यक्त किया।
लोकार्पण समारोह का प्रारम्भ सरस्वती वन्दना से हुआ। तत्पश्चात, विभाग के एम ए के छात्रों द्वारा एक प्रस्तुति (पावर पाइंट प्रणाली द्वारा ) दी गयी। कम्प्यूटर के भाषिक अध्ययन के अंतर्गत उन्होंने विश्वविद्यालय तथा विभाग की गतिविधियों पर एक छोटा सा कार्यक्रम बनकर उपस्थित लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया, जो कि प्रभावशाली था। इस समारोह में बड़ी संख्या में विश्वविद्यालय के कर्मचारी और प्राध्यापक गण मौजूद थे। विभाग के छात्रों के अलावा दूसरे विश्वविद्यालयों के छात्र भी उपस्थित हुए।
सर्वप्रथम मंचासीन विद्वानों के करकमलों से ' समुच्चय' पत्रिका का लोकार्पण किया गया। प्रो ऋषभदेव शर्मा ने पत्रिका की समीक्षा ( आलोचना ) करते हुए कहा कि। यह पत्रिका - सम्पादक द्वारा घोषित नीतियों के अनुकूल नहीं है। शोध पत्रिका में उन्होंने कुछ आलेखों पर तीखी आलोचना प्रस्तुत की। प्रो शर्मा के अनुसार- समुच्चय का प्रवेशांक आशा के विपरीत आकार में लघु तथा चयन में भी कुछ कमियाँ रह गयीं हैं । आलेख चयन में अधिक पारदर्शिता और शोधपरकता देखनी होगी। जगदीश्वर चतुर्वेदी के आलेख पर उनकी ख़ास टिप्पणी रही। कुल मिलाकर उनके भाषण का सार यही था कि आगामी अंक अधिक कसे हुए और उत्कृष्टता से भरपूर हों। सामग्री विशुद्ध शोध परक हो . डा राधेश्याम शुक्ला जी ने जी नेशोध पत्रिकाओं कि वर्तमान स्थिति पर अपने उदगार प्रकट किये । शोध की जब गुणवता होगी तभी शोध पत्रिका भी स्तरीय नहीं होगी। उन्होने चयन समिति को अधिक सख्ती बरतने का सुझाव दिया। हिन्दी में शोध पत्रकारिता बहुत पिछड़ी हुई है । शोध पत्रका के नाम पर आज भी बहुत कुछ कूडा कचरा ही आ रहा है। विश्वविद्यालयों में गिरते हुए शोध के स्तर के प्रति उन्होंने गहरी चिंता जताई। प्रो मोर्य ने प्रो ऋषभदेव शर्मा के वक्तव्यों के पारी सहमति जताई ।
कार्यक्रम के प्रारम्भ में प्रो एम वेंकटेश्वर ने सभी अतिथियोंका स्वागत किया। साथ ही विगत एक वर्ष की विभागीय गतिविधियों पर संक्षेप में प्रतिवेदन प्रस्तुत किया।
इस कार्यक्रम का समापन शोध छात्र श्री अभिषेक द्वारा आभार प्रदर्शन के साथ हुआ ।

Friday, September 17, 2010

और एक हिंदी दिवस का आना और चला जाना.

१४ सितम्बर २०१० का दिन आया और ढेर सारी आशाएं जगाकर चला गया। वही समारोह और वही हलचल - एक दिन की चांदनी और फिर ३६५ रातों का अंधेरा ? लेकिन इस बार कुछ नए तरह के दृश्य देखने को मिले । हिन्दी के समाचार पत्रों में हिन्दी दिवस संबंधी लेखों में काफी वृद्धि हुई है। निश्चित रूप से काफी लोग अब हिंदी दिवस संबंधी लेख लिखने में रूचि लेने लगे हैं। जहां पहले केवल कुछ अकादमिक क्षेत्र के लोग ही लिखते थे वहां इस बार केंद्र सरकार के उपक्रमों के हिन्दी अधिकारी गण अपने विचार खुलकर व्यक्त करने लगे हैं। यह एक सकारात्मक पहलू है, इस बार के हिन्दी दिवस का । राजभाषा के कार्यान्वयन की दिशा में जो भी कम हुआ है और हो रहा है - केंद्र सरकार के कार्यालयों, बैंकों और उपक्रमों में उसका ब्योरा अधिक मात्रा में इस बार प्रिंट माध्यम में देखने को मिला। राजभाषा पत्रिकाओं की भी भरमार दिखाई दी है। खेद का और चिंता का भी विषय फिर वही रहा कि अंग्रेज़ी के किसी अखबार वाले ने इस महान दिवस की चर्चा तक नहीं की। और लोग चुप हैं हमेशा की तरह। क्या अंग्रेज़ी के समाचार पत्र - इस देश के नहीं हैं ? क्या हिन्दी केवल हिन्दी पढ़ने लिखने वालो का ही सर दर्द है ? क्या इसका कोई राष्ट्रीय सरोकार नहीं है ? हम इस सवाल को हर साल यूं हीहैं और खुद ही इसका उत्तर भी देकर आगे बढ़ जाते हैं।
स्वाधीनता प्राप्त के ६३ बरसों बाद भी हम आज तक अपनी भाषाई राष्ट्रीय अस्मिता को सिद्ध करने में असफल ही रहे। आज भी सरकार ( चाहे किसी भी दल की क्यों आई हो ) हिंदी को राष्ट्र भाषा घोषित करने के लिए खुलकर पहल नहीं कर रही है - ऐसा क्यों ? संविधान की हिन्दी भाषा संबंधी धाराएं अस्पष्ट हैं और अधूरी हैं। समय आ गया है कि उन अनुच्छेदों पर पुनर्विचार किया जाए और उनमें उचित संशोधन कर देश की भाषा नीति को स्पष्ट कर लागू किया जाए। हिन्दी और अंग्रेज़ी की यह आँख मिचौली आखिर कब तक चलेगी ? पीढियां गुज़र जा रहीं इस व्यर्थ के बोझ
को उठाते उठाते । देशवासी इतने उदासीन क्यों हैं - हमारी भाषा/भाषाओं के प्रति ? किसी भी बहुभाषी देश में किसी एक (सर्वसम्मत ) भाषा को शिक्षा, कामकाज और अन्य प्रयोजनों के लिए स्वीकार करना राष्ट्रीय धर्म है और कर्त्तव्य भी। ऐसा नहीं करना देशद्रोह हो सकता है। दुर्भाग्य से हमारे देश राजनेताओं ने आजादी के समय एक छोटी सी भूल कर दी उसीका खामियाजा आज तक देश भुगत रहा है। राष्ट्र की प्रमुख राजभाषा/राष्ट्रभाषा के प्रति उदासीनता और नीतिविहीनता ने आखिर देश को अनिश्चितता की स्थिति में ढकेल दिया। लेकिन इसकी किसी को परवाह नहीं है। १४ सितम्बर के दिन कम से कम हम सब लोग मिलकर हिन्दी भाषा की वर्तमान स्थिति के बारे मन कुछ देर के लिए विचार तो कर लेते हैं। इसके कार्यान्वयन की दशा और दिशा का आकलन कर लेते हैं। यही संतोषजनक कार्य है।
वैसे आज भारत में आज हिंदी की दशा पहले से बहुत सुधरी है और लोगों का दृष्टिकोण भी बदला है। हालाकि अंग्रेज़ी का प्रयोग बढ़ा है, लेकिन हिन्दी और भारतीय भाषाएँ भी अपना काम कर रहीं हैं, चुपके चुपके। बाज़ार और उपभोक्ता संस्कृति ने भारतीय भाषाओं और विशेषकर हिंदी को व्यावहारिक प्रयोग के लिए उपयुक्त बना दिया है। उपभोक्तावादी बाज़ार प्रणाली ने उत्पादों की बिक्री के लिए भारतीय भाषाओं को अनुवार्य सिद्ध कर दिया है। लेकिन यह बदलाव किसी दल, समुदाय या व्यापार की नीति के कारण नहीं हुआ। यह तो एक स्वचालित प्रक्रिया है जो आवश्यकता से उत्पन्न हुई है। इसका कोई सांस्कृतिक आधार नहीं है। सांस्कृतिक दृष्टि से हमारी भाषाओं को नुकसान ही हुआ है। अंग्रेज़ी और अन्य पाश्चिमी संस्कृति का प्रकोप और तेज़ हो गया है। शिक्षित शहरी वर्ग - हिन्दी और भारतीय भाषाओं को हीन दृष्टि से देखता है । उसे अमेरिका का आकर्षण भारतीय भाषाओं से दूर कर देता है। फिर जब हमारे देश में जब हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाएँ किसी काम की नहीं हों तो फिर कोई क्यों इन भाषाओं को सीखने या प्रयोग करने की दिशा में सोचेगा ? बुद्धिमान व्यक्ति वही है जोअपने भविष्य को सुस्थिर बनाने के लिए व्यावाहारिक्रूप से प्रचलित और रोज़गार की सम्भावनाओं वाली भाषा माध्यम को ही चुनेगा - और वह आज के परिदृश्य में निश्चित रूप से अंग्रेज़ी ही है। अंग्रेज़ी को अनिवार्य दर्जा देकर हम भारतीय भाषाओं का पक्ष कैसे ले सकत हैं, यदि लेते भी हैं तो वह केवल एक दिखावा है और छल है । सरकार और राजनीतिक दल आज भी हिन्दी और भारतीय भाषाओं के प्रयोग के उपायों को लेकर गंभीर नहीं है। यथास्थितिवाद ने देश को बरबाद कर दिया है। आज देश में किसी को अपनी भाषाओं के विकास की गंभीर चिंता नहीं है। एक विचित्र तदर्थवाद चल रहा है - जिसका समर्थन सभी लोग चाहे-अनचाहे कर रहे हैं।
आज भी हमारे सामने ये प्रश्न ज्वलंत रूप से मुंह बाए खड़े हैं कि हमारे देश में शिक्षा का माध्यम हिंदी अथवा भारतीय भाशाएं क्यो नहीं हैँ वह कौन सी मजबूरी है कि हम एक विदेशी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाकर अपना काम चलाने को बाध्य हैं ? हमारे देशवासी किसी एक भाषा को स्वीकार करने के लिए क्यों तैयार नही हैं ?
राजभाषा कार्यान्वयन का सही आकलन हो पा रहा है या नहीं। राजभाषा कार्यान्वयन कहीं कहीं पर केवल खानापूरी की ही स्थिति में ही मौजूद है। आज भी ये समस्याएँ देश के सम्मुख गंभीर रूप में विद्यमान हैं.

Saturday, June 12, 2010

भोपाल गैस काण्ड - एक राष्ट्रीय शोक या शर्म ?

भोपाल गैस काण्ड की दिल दहलाने वाली घटनाओं को २६ साल बड़े मिले कोर्ट के फैसले ने फिर से ताज़ा कर दिया। हमारे देह में सरकारों के लिए कभी भी आम आदमी जीवन महत्वपूर्ण नहीं रहा । सरकारों ने कभी भी निर्दोष लोगों के सामूहिक संहार के प्रति मानवीय दृष्टि से विचार नहीं किया। बहुत ही निर्दयी है हमारी सरकारें और हमारे राजनेता ! गोधरा, गुजरात,दंतेवाडा ,मंगलोर, गुजरात का भूकंप, भोपाल, मुम्बई के अनेक वारदात जिसमें सामूहिक हत्याए हुई अथवा बड़ी संख्या में लोग किसी न किसी हादसे के शिकार हुए। जिनमें अधिकतर हादसे सरकार की लापरवाही से हुए, तंत्र की विफलता के कारण हुए, कभी भी हमारी सरकारें ( चाहे वे किसी भी पार्टी की क्यों न रही हो ), जनता के लिए कुछ भी नही कर पाईं हैं । सरकारों ने अपनी जिम्मेदार्री से सदा पलायन किया है। सता दल और विपक्ष दोनों ने अपनी भूमिका कभी भी ईमानदारी से नही निभाई । हमारे देश वासी बहुत सहनशील हैं । वे बहुत जल्द सब कुछ स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन इस बार तो हमारे राज नेताओं ने बेशर्मी की सभी सीमाओं को लांघ दिया .तत्कालीन मुख्यमंत्री ( मध्य प्रदेश ) से लेकर केंद्र के सभी राजनेता लोगों ने किस तरह देश द्रोह के ऐसे कारनामे को अंजाम दिया यह इतिहास गवाह है और उस समय के लोग जो इस सरे प्रकरण में भागीदार थे

आज सारा देश जवाब मांग रहा है- सभी राजनीतिक पार्टियों से और सभी नेताओं से। हर कोई जिम्मेदार है इस घिनौने विश्वासघात के लिए और राष्ट्रीय नरसंहार के लिए । आज हर कोई बचना चाहता है। एंडरसन को देश से सुरक्षित निकालने का दायित्व कोई लेने को तैयार नहीं । कायरता का इससे घिनौना रूप और क्या सकता है ? लाखो लोगो को हमेशा के लिए अपंग बनाकर देश की एक बड़ी जनसंख्या को नेस्तनाबूत करने का जघन्य अपराध करने वालो को इस तरह छोड़ देना - क्या यही लोकतंत्र है? हमारे देश में क्या लोगों को जीने का अधिकार नहीं है ?

उन लाखो निर्दोष लोगों को क्या कभी न्याय नहीं मिलेगा ? कौन दिलाएगा न्याय और मुआवजा ? अमेरिका की कूटनीति के सामने क्यों हम घुटने टेक देते हैं । क्या हम संप्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक राष्ट्र नहीं हैं ।

हमारी भोली भाली जनता इतनी निरीह है कि अपने अधिकारों के लिए लड़ना भी नही जानती है। यूनियन कार्बाइड कम्पनी ने अपना पल्ला यह कहकर झाड लिया है कि वह भारत की कानूनी सीमा में नहीं आती। साथ ही स्पष्टी शब्दों में उसने पुष्टि कर दी है कि भोपाल संयंत्र के रखा रखाव की जिम्मेदारी भारत की इकाई के संचालकों पर ही थी/है - इसलिए इसकी जवाबदेही भी भारतीय वैज्ञानिकों और अधिकारियों पर ही होगी। एक रोचक स्थिति उत्पन्न हो गई है। सारा देश दुःख और की आक्रोश की मुद्रा में है । सन १९८४ के सिख विरोधी दंगों के पीड़ितों को भी आज तक कोई मुआवजा या इन्साफ मिला है। हज़ारो लोग आज भी राहत शिविरों में इंतज़ार कर रहे हैं। जब जब भावनाओं का उफान आता है लोफ सडकों पर निकल पड़ते हैं - अपने मृत जनों की तस्वीरों को गले में लटकाए हुए । कौन उन्हें न्याय दिलाएगा ? .क्या आज तक कोई सत्ताधारी दल इनकी गुहार सुना है। घोषित अपराधी भोपाल त्रासदी के महत्वपूर्ण पदों पर सत्ता का सुख भोग रहे हैं क्या निरीह बेबस जनता सडकों पर भीख मांग मांग कर अपना गुज़ारा कर रही है।