Saturday, December 5, 2015

प्राकृतिक आपदा या मानव की अतिमहत्वाकांक्षा का परिणाम, एक महानगर की तबाही -

आज सारा विश्व पर्यावरण संबंधी आपदाओं से जूझ रहा है । ओज़ोन पर्त की क्षीणता, ग्रीन हाऊस गैस का निर्धारित मात्रा से अधिक रिसाव, भारी उद्योगों से विसर्जित कार्बन डायाक्साईड, वायुमंडल मे व्याप्त जहरीली गैस, वायु प्रदूषण, मोटर वाहनों से निकला हुआ धुआँ, शहरों में जलभराव की स्थितियाँ, रासायनिक उद्योगों से निसृत अवशेष और रद्दी, शहरों मे निकास सुविधाओं की कमी आदि से उत्पन्न ऐसी आपदाएँ हैं जो की मानव सभ्यता पर भारी पड़ रही हैं । ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए जिन ईंधनों का इस्तेमाल होता है, उससे भी अनेक प्रकार की जहरीली हवाएँ और गैस वायुमंडल को प्रदूषित करते हैं । शहरों मे जिस तीव्र गति से  हरियाली को काट काटकर कांक्रीट के जंगल बनाए जा रहे हैं, इससे मानव सभ्यता इन कांक्रीट के जंगलों मे ही कैद हो कर रह गई है । मनुष्य को सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा नसीब नहीं हो रही है । इस कारण बीमारियाँ बढ़ रहीं हैं । फेफड़े और दिल की बीमारियाँ, कैंसर जैसे घातक रोग बढ़ते जा रहे हैं ।
इधर चेन्नई शहर में पिछले सप्ताह जो भयानक बारिश हुई, उससे जो तबाही हुई, उसकी कल्पना से ही रूह काँप उठती है । समुद्र से उठा चक्रवाती तूफान जब तट को पार करता है तो भीषण वर्षा होती है, यह प्रकृति सहज है । लेकिन केवल चार दिनों मे ही कई सौ सेंटीमीटर की भीषण वर्षा जो कि  अनुमान से परे है, इतनी वर्षा की सारा शहर ही डूब जाए और एक द्वीप मे परिवर्तित हो जाए और वह भी अकस्मात, हो जाए तो कोई भी सरकारी तंत्र ऐसी आपदा से शहरवासियों की कैसे मदद कर सकेगा । इस वर्षा ने समूचे चेन्नई शहर को निगल लिया । दो दो मंजिल की ऊंचाई तक शहर मे पानी भर गया । बिजली बंद हो गई, संचार के साधन नष्ट हो गए, रेल और सड़क यातायात थम गया, सड़कें और रेल लाईनें बह गईं।पुल  बह गए । हवाई अड्डा पानी से भर गया, रन वे पानी मे अदृश्य हो गए, संचार व्यवस्था भारी बारिश से नष्ट हो गई । भोजन, पानी और दवाएं पानी में बह गए । कुछ नहीं बचा । लोगो भोजन और पानी के लिए तरस रहे हैं । अस्पतालों मे बिजली के कट जाने से मरीजों की मौत हो गई । ऑक्सीज़न आपूर्ति के रुक जाने से आईसीयू के मरीज नहीं बच सके । हॉस्टल में मूक और बधिर बच्चे अन्न और पानी के अभाव में मरणासन्न  अवस्था मे जा पहुंचे जब उन्हें स्थानीय लोगों ने मदद की जिससे उनके प्राण बच गए ।
वर्षा के थमने के बाद बचाव और राहत कार्य मे तेजी आई है किन्तु बचाव और राहत कार्य मे समन्वय के न होने के कारण बाहर से सेना और अन्य सुरक्षा बलों के सक्रिय होने पर भी बहुत सारे इलाके राहत और सहायता के लिए इंतजार कर रहे हैं । सेना, पुलिस और अन्य आपदा सहायक संगठनों के सेवाकर्मियों ने बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया है और वे कर रहे हैं ।  नगरवासी भी अपने अपने इलाकोने में स्वैच्छिक रूप से एक दूसरे की मदद कर रहे हैं । यह एक बहुत अच्छी मिसाल है । छात्र संगठन और युवा कार्यकर्ता नावों में घूम घूमकर पानी मे फंसे हुए लोगों को सुरक्शित स्थानों मे पहुंचाने का काम कर रहे हैं । चेन्नई महानगर ने एक बहुत ही शानदार मिसाल कायम की है । संकट पुर आपदा में शहरवासी हिम्मत नहीं हारे, सरकार को बेज्जत नहीं किया और जिनको जो बन पड़ा वह अपने साथी लोगों को बचाने के कार्य मे लग गया ।इस आपदा ने शहर में एक जुटता   ला दी ।
किन्तु भारी वर्षा से शहर मे इतनी तबाही का कारण केवल वर्षा ही नहीं है । बल्कि शहर की बनावट और उसका विस्तार है जो बेतरतीब से फ़ेल गया है । अनियंत्रित ढंग से बड़े बड़े निर्माण हुए हैं, पानी की निकासी को अवरुद्ध करके ऊंची ऊंची इमारतें बना दी गईं। झीलों और तालाबों का अतिक्रमण करके कालोनियाँ बसा दी गईं । नदी और नाले के बहाव को रोक कर वहाँ भी मकान और उपनगर बसा दिया गया । सरकार ने आर्थिक आमदनी के लालच मे अनियमित निर्माणों को भी पैसे ले लेकर नियमित कर दिया । पानी के बहाव के लिए कोई भी मार्ग नहीं छोड़ा गया, इसीलिए यह भारी विपत्ति शहरवासियों पर ऐसे आ गिरी जिसका समाधान किसी के पास नहीं है । अब समय आ गया है जब सरकारें और जनता भी इस विषय पर विचार करे और उन सारे अनिधिकृत निर्माणों को तोड़ गिराए जो पानी के बहाव के मार्ग मे बाधक बनाकर खड़ी हो गई हैं । तालाब और झीलों मे अनधिकृत रूप से बने हुए इमारतों को हटाना होगा तभी इस प्रकार का संकट भविष्य में नहीं पैदा होगा ।      यह स्थिति केवल एक शहर में नहीं है बल्कि आज भारत के सभी महानगरों का यही हाल है । इससे पहले यह स्थिति मुंबई महानगर में आई थी लेकिन हमने उससे कोई सबक नहीं सीखा । दिल्ली मे भी जब जब भारी बारिश होती है तो अधिकतर इलाकों मे जलभराव होता है और लोगों को बहुत तकलीफ झेलनी पड़ती है । अब समय आ गया है कि हम ऐसी स्थितियों से निबटने का कोई समाधान ढूंढें और उस पर अमल करें । 

Wednesday, November 18, 2015

प्रेम रतन धन पायो

राजश्री प्रोडक्शन का नवनिर्मित, सूरज बड़जात्या  द्वारा निर्देशित ' प्रेम रतन धन पायो ' राजश्री निर्माण संस्था की सुदीर्घ अंतराल के बाद ( नौ वर्षों के बाद )  आई हुई फिल्म है । सूरज बड़जात्या निर्देशित फिल्मों का सिनेप्रेमियों को इंतजार रहता है । राजश्री एक ब्रांड है, सांस्कृतिक मूल्यों और पारिवारिक संबंधों के प्रति दर्शकों मे नई ऊर्जा और विश्वास जगाने के लिए । 60 के दशक मे दक्षिण से प्रसाद, जेमिनी और ए वी एम स्टुडियो (निर्माण संस्थाओं ) पारिवारिक मूल्यों को संवर्धित करने वाली फिल्में बनाने के लिए मशहूर हुई थीं । राजश्री निर्माण संस्था का जन्म 1962 में 'आरती ' से हुआ जिसमें  मीना कुमारी- प्रदीप कुमार- अशोक कुमार की एक त्रिकोणात्मक प्रेम कथा के साथ साथ प्रेम और मैत्री के बीच द्वंद्व का चित्रण बहुत ही सुंदर और आकर्षक ढंग से हुआ है । उन दिनों मीना कुमारी- प्रदीप कुमार, अशोक कुमार - मीना कुमारी युगल जोड़ी बहुत लोकप्रिय थी ।   राजश्री प्रोडकशन की फिल्मों के लिए साठ और सत्तर के दशक में हिंदी फिल्म जगत के सुविख्यात निर्देशकों ने निर्देशन किया जिनमें नितिन बोस, बासु चटर्जी, लेख टंडन आदि प्रमुख हैं । उसके बाद ताराचंद बड़जात्या अपनी संस्था के लिए निर्देशन का भार संभाला और बहुत ही सफल, लोकप्रिय फिल्में बनाईं । दुल्हन वही जो पिया मन भाए, पिया का घर, उपहार, नदिया के पार, गीता गाता चल, चितचोर आदि फिल्में इनके निर्देशन मे निर्मित हुईं जो आज भी लोग याद करते हैं । राजश्री प्रोडक्शन  की फिल्मों के गीत और उनका संगीत माधुर्य और कर्णप्रियता के लिए सदाबहार होते हैं । उनके फिल्मों के गीत-संगीत की  लोकप्रियता आज तक बनी हुई है । यह एक परंपरा के रूप में हिंदी सिनेमा जगत मे समादृत होती है । सन् 2006 मे निर्मित 'विवाह ' के बाद अब
' प्रेम रतन धन पायो '  हिंदी के साथ तेलुगु  और तमिल भाषाओं मे भी डब होकर रिलीज़ हुई है ।इससे पहले की फिल्म  'विवाह ' भारतीय संस्कृति से सगाई और विवाह के बीच वर-वधू की संवेदनाओं को अत्यंत बारीकी और काव्यात्मक कलात्मकता से प्रस्तुत करती है । भारतीय समाज मे कुछ ऐसी परम्पराएँ जो लुप्त प्राय सी हो गई हैं, उन्हें राजश्री फिल्म निर्माता याद दिलाते हैं और उन्हें पुन: प्रतिष्ठापित करने के लिए कृत संकल्प हैं । सिनेमा व्यापार का एक माध्यम है, यह एक उद्योग जगत है, जहां करोड़ों और अरबों का कारोबार होता है ।  फिल्म निर्माण का मूल उद्देश्य धन अर्जित करना ही है, किन्तु ऐसे कारोबारियों मे कुछ ऐसे होते हैं जो इस सशक्त जन -माध्यम के सामाजिक सरोकारों के प्रति ईमानदारी से अपने नैतिक दायित्व का निर्वाह करते हैं । विमल रॉय, महबूब खान, सत्यजित रॉय, बी आर चोपड़ा, ऋत्विक घटक, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, ऋतुपर्णों घोष, आदि ऐसे ही फ़िल्मकार हुए हैं जिन्होंने सामाजिक- नैतिक मूल्यों को भारतीय संदर्भ मे अक्षुण्ण रखने के प्रयास से बेजोड़ संदेशात्मक और सुधारवादी फिल्में बनाईं । फिल्म का अंतर्निहित उद्देश्य सामाजिक सरोकार भी होता है । मनोरंजन के साथ इसका उद्देश्य परोक्ष रूप से दर्शकों में देश, काल, वातावरण के प्रति  जागरूकता प्रदान करना भी होता है । दुर्भाग्य से आज सिनेमा निर्माण और निर्देशन का नजरिया विशुद्ध बाजारवादी हो गया है ( कुछ अपवादों को छोड़कर ) ।  केवल सस्ते ओछे मनोररंजन के फार्मूले तैयार किए जा रहे हैं इन और उन्हीं से करोड़ों की वसूली ही फिल्म निर्माताओं का शगल बन गया है । आज भारतीय सिनेमा अधिकाधिक क्राइम थ्रिलर, एक्शन कॉमेडी, हॉरर, से भरपूर सस्ते मनोरंजन को परोसने वाली छवि निर्मित कर चुका है । अब, कभी कभार ही एकाध स्वच्छ साफ सुथरी, परिवारसहित देखने योग्य फिल्म  मिल जाती है । सिनेमा का तकनीकी विकास, सिनेमा घरों के स्वरूप मे परिवर्तन, मल्टीप्लेक्स मल्टी स्क्रीन मॉल संस्कृति का उदय आदि कारण हैं जिसने सिनेमा कीकलात्मक अभिव्यक्ति को प्रभावित किया है । हॉलीवुड में  भी अब केवल साइंस फिक्शन पर आधारित फिल्में ही अधिक निर्मित होती हैं । उनके कोश में भी सामाजिक, ऐतिहासिक, पारिवारिक संबंधों और प्रेम संवेदनाओं के कथानक चुक गए हैं । इसीलिए सन् 60 के दशक से पूर्व का युग ही विश्व सिनेमा का सुवर्ण युग माना जाता है । चाहे वह भारतीय सिनेमा हो या हॉलीवुड सिनेमा - दोनों ही का सिनेमा का समाजशास्त्र अब बदल गया है । सिनेमा से धीरे धीरे कलात्मक अभिव्यक्ति दूर होती चली जा रही है । यह एक चिंता का विषय है ।उपर्युक्त विसंगतियों के बावजूद राजश्री निर्माताओं ने हिंदी सिनेमा को भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं से जोड़कर रखा । ताराचंद बड़जात्या के बाद सूरज बड़जात्या ने राजश्री संस्था की बागडोर संभाली और वे उसी भारतीयता को कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है जो उनके घराने की विशेषता रही है । 'मैंने प्यार किया, हम आपके हैं कौन, हम साथ साथ हैं और विवाह ' फिल्मों ने भारतीय सामाजिक-पारिवारिक मूल्यों और परम्पराओं को पुनर्जीवित कर दिया जो कहीं विलुप्त हो रही हैं । इसी क्रम मे इस बार सूरज बड़जात्या के ही निर्देशन में एक और ब्लॉक बस्टर फिल्म बनी है - प्रेम रतन धन पायो ।
इस बार सूरज बड़जात्या ने जो स्वयं इस फिल्म के निर्माता और पटकथा लेखक भी हैं, एक अलग तरह की कहानी चुनी है । 'प्रेम रतन धन पायो 'कई अर्थों मे राजश्री फिल्मों की लीक से हटकर फिल्म है । पहली बार सूरज बड़जात्या ने एक राजघराने के पारिवारिक कलह को फिल्म का विषय बनाया है । यह भी पहली बार हुआ है कि सूरज बड़जात्या ने एक पूर्व निर्मित हॉलीवुड की सन् 1952 मे निर्मित फिल्म ' द प्रिजनर ऑफ जेंडा ' को हिंदी मे थोड़े से फेर बदल के साथ पुनर्निर्मित ( रिमेक ) किया है । वास्तव मे इस फिल्म का भारतीयकरण कर दिया गया है । उपर्युक्त फिल्म एन्टोनी हॉप नामक कथाकार के द्वारा रचित ऐतिहासिक उपन्यास पर आधारित है । प्रीतमपुर के युवराज विजय सिंह (सलमान खान ) का राजतिलक, उनकी सगाई देवघर की राजकुमारी मैथिली ( सोनम कपूर ) से निश्चित हुई
है ।  युवराज विजयसिंह की दो सौतेली बहनें रियासत की संपत्ति मे अपना आधिकारिक हिस्सा पाने के लिए रूठकर चली गई हैं और वे युवराज से अपना हक मांगने के लिए कानून की धमकी देती है । युवराज विजय सिंह इस गुत्थी को सुलझाने मे असमर्थ दिखाई देते हैं । राजघराने के इस कलह से लाभ उठाते हुए रियासत को हथिया लेने के लिए युवराज के सौतेले भाई अजय सिंह ( नील-नितिन मुकेश ) अपने अनुचरों सहित युवराज के खिलाफ षडयंत्र रचते
हैं । राजतिलक से ठीक पहले युवराज पर एक घातक हमला होता है । राजघराने के विश्वासपात्र दीवान साहब युवराज को घायल अवस्था मे बचा लेते है और उनका उपचार एक खुफिया गुफा मे करवाने लगते हैं । राज घराने पर संकट आ पड़ता है । राजकुमारी मैथिली देवी (सोनम कपूर ) सगाई के लिए प्रीतमपुर पहुँचने वाली होती है और उनकी आगवानी करने के लिए युवराज का मौजूद होना आवश्यक था । इन स्थितियों मे दीवान साहब को अयोध्या की एक रामलीला मंडली का कलाकार 'प्रेम दिलवाला ' (सलमान खान - दोहरी भूमिका में ) मिल जाता है । दीवान साहब प्रेम दिलवाला को युवराज के रूप मे सारी तैयारियों और सावधानियों के साथ राजकुमारी मैथिली देवी से भेंट करावा देते हैं । कहानी के अंत तक प्रेम दिलवाला राजकुमारी के साथ युवराज के रूप में बहुत ही प्रभावशाली मनमोहक अभिनय करता है ।राजकुमारी मैथिली देवी जिसके मन में  युवराज वियजयसिंह के लिए एक कड़ुवाहट भरी यादें समाई हुई थीं औ जो एक तरह से स्वयं को इस वैवाहिक संबंध से मुक्त कर लेना चाहती थी, वह युवराज के रूप में उसका साथ देने वाले प्रेम दिलवाला के आत्मीय, प्रेमपूर्ण व्यवहार से प्रभावित होकर उससे प्रेम करने लग जाती है ।प्रेम दिलवाला युवराज के भेष मे उनकी बहनों की मांगों को भी पूरा कर राजघराने की उस समस्या को हल कर देता है जिस कारण युवराज विजयसिंह का परिवार टूट रहा था ।  असली युवराज को वापस लौटा लाने की कहनी रोचक है जो अंत में अपने स्थान पर पहुँचते हैं और प्रेम दिलवाला को राजमहल से कृतज्ञतापूर्वक विदा करते हैं । किन्तु मैथिली देवी के मन में तो प्रेम दिलवाला ही युवराज की शक्ल मे बसा हुआ था । मैथिली देवी की प्रेम कहानी को उसके सही मुकाम तक पहुंचा दिया जाता है । युवराज  स्वयं मैथिली देवी को लेकर प्रेम दिलवाला को सौंपने के लिए अपनी बहनों सहित पहुँचते हैं और फिल्म सुखांत हो जाता है ।
ताराचंद बड़जात्या ने हमेशा की ही भांति पारिवारिक मूल्यों की रक्षा करते हैं । राजा और प्रजा के बीच अंतराल को समाप्त करते हुए राजकुमारी का विवाह एक साधारण व्यक्ति से करने की पहल करते हैं । फैमिली को बचाने ही हर व्यक्ति का कर्तव्य होना चाहिए - यह सीख देते हैं । भाग्यवान वह होता है जिसकी फैमिली होती
है ।  फैमिली मे प्यार होता है तो रूठना और मनाना भी होता है  । परिवार में सुख और शांति बनाए रखने के लिए भाई और बहनों में प्यार का होना आवश्यक है । परिवार की संपत्ति में बहनों को शामिल करना, भाईयों का कर्तव्य है । इस तरह की   संदेशात्मकता फिल्म की कहानी में अंतर्निहित है ।
इस फिल्म की कहानी राजघराने की पृष्ठभूमि पर  आधारित है इसलिए बहुत ही भारी और आलीशान,  महंगे सेटों का निर्माण किया गया जो कि फिल्म में बहुत ही आकर्षक बन पड़े हैं । एक से एक खूबसूरत परिधान, भव्य अलंकरण से युक्त महल की साजसज्जा, मैथिली देवी का आकर्षक व्यक्तित्व फिल्म मे चार चाँद लगा देता है । हिमेश रेशमिया का संगीत निर्देशन वास्तव मे प्रशंसनीय है । इस फिल्म का शीर्षक गीत प्रेम रतन धन पायो - दर्शकों और संगीत प्रेमियों की पहली पसंद बन चुका है । फिल्म के गीतों और संगीत मे लोकतत्व की प्रधानता है । रामलीला का मंचन और उसका गीत मनोहारी है जो ठेठ लोक संस्कृति को उजागर करता है । सलमान ने युवराज और प्रेम दिलवाला की दोहरी भूमिका बहुत ही  कलात्मकता से निभाई है । सोनम कपूर राजकुमारी मैथिली देवी के रूप में एक सुकोमल सौन्दर्य को धारण किए हुए है । फिल्म की सिनेमाटोग्राफी उत्कृत्ष्ट कोटि की है। रंगों का चयन नयनाभिराम है । फिल्म में राजघराने की भव्यता प्रदर्शित करने  के लिए एक शीशमहल
का दृश्य है जो की सुंदर तो है किन्तु अनावश्यक लगता है । शीशमहल के प्रसंग तक आते आते दर्शकों में फिल्म के क्लाईमेक्स की उत्कंठा बढ़ जाती है इसलिए यह उबाऊ लगता है ।
फिल्म का पूर्वार्ध थोड़ा शिथिल सा है किन्तु उत्तरार्ध में अधिक रोचक और वेगवान है । फिल्म की पटकथा कुछ जगहों पर भटक गई है और शिथिल सी लगती है । फिल्म की अवधि तीन घंटे है जो कि बहुत अधिक है इसे ज्यादा से ज्यादा अढ़ाई घंटे में समेटा जा सकता था । सूरज बड़जात्या ने हॉलीवुड की फिल्म प्रिजनर ऑफ जेंडा ( 1952 ) की याद ताजा कर दी । अंतत: यह निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सूरज बड़जात्या ने एक बार फिर समूचे परिवार के लिए एक मनोरंजन से भरपूर संदेशात्मक, मधुर संगीत से युक्त फिल्म सिनेमा प्रेमियों को दिवाली के अवसर पर दी है । 

Tuesday, November 17, 2015

पेरिस में आतंकी हमले : मानवता को शर्मसार करने वाली कायरतापूर्ण बर्बरता है

पेरिस मे हुए आतंकी हमले ने सारी दुनिया को हिला कर रख दिया है । आखित मनुष्यता किस दिशा में जा रही है ? मनुष्य सभ्यता का क्या गंतव्य है ? निर्दोष और निहत्थे नागरिकों की अमानुषी हत्या से कोई भी समनूह कुछ नहीं हासिल कर सकता । कोई भी विचारधारा, चाहे वह अतिवादी हो या उदारवादी, धार्मिक, सांप्रदायिक हो, या राजनीतिक अथवा दार्शनिक, हिंसा से मनुष्य  और मनुष्यता  नष्ट हो जाएगी, सारी दुनिया वीरान हो जाएगी फिर जब कोई नहीं बचेगा तब ये तथाकथित हमलावरों का कौन सा राज स्थापित होगा और वे किन पर राज करेंगे । आई एस आई एस (ISIS ) की मंशा कभी पूरी नहीं हो सकती, जब तक की वह अपने विचारोंकों संवाद के रूप मे दुनिया के सामने नहीं प्रस्तुत करता । इस तरह के आतंकवाद का सामना करें के लिए सारी दुनिया को एकजुट होकर आपसी राजनीतिक वैचारिक मतभेद को ताक पर रखकर कोई स्थाई और कारगर समाधान तलाशना होगा । खून का बदला खून से लेना बहुत आसान है किन्तु यह हिंसा को और अधिक बढ़ावा देगा,जैसा कि हो रहा है । मानवता मर रही है । निर्दोष लोग व्यर्थ मे मारे जा रहे हैं । इस तरह के खिफ़्या हमलों को रोक पाना किसी भी सरकारी तंत्र के लिए कठिन है चाहे वह सरकार कितनी भी ताकतवर और चुस्त क्यों  न हो । यूरोपीय देश सभी अति सम्पन्न और समर्थवान देश हैं, जहां की सैन्य और पुलिस व्यवस्था तीसरी दुनिया के गरीब देशों के सैन्य व्यवस्था से कहीं अधिक विकसित और समुन्नत हैं । इन देशों का खुफिया तंत्र भी अति विकसित है । फिर भी ऐ। से हमलों के बारे में इन्हें भनक भी नहीं मिल रही है । यह एक चुनौती है । यह चुनौती सभी देशों के लिए है । भारत जैसे देश के लिए यह और भी बड़ी चुनौती हो सकती है ।
पेरिस मे मारे गए नागरिकों के प्रति सारा विश्व शोक संवेदनाएँ व्यक्त कर रहा है, जो कि आवश्यक है । हम सब दुखी हैं और चिंतित भी हैं । यह दुख की घड़ी है जब सारी मानवता को एक हो जाना चाहिए । यह हमला मानवता पर हुआ है । पेरिस यूरोपीय सभ्यता और  संस्कृति का केंद्र माना जाता है । यहाँ हर धार्मिक और सांस्कृतिक समुदाय के लोग निवास करते हैं । यह एक सु सम्पन्न देश  है । कला, संस्कृति, फैशन, साहित्य का प्राचीन, मध्य युगीन  और आधुनिक का संगम स्थल है ।  ऐसी सांस्कृतिक नागरी के शांत जीवन के ताने बाने को तार तार कर देना अत्यंत पीड़ादायक है । पेरिस वासियों के दुख में हर कोई शामिल है । इसमें कोई संदेह नहीं । ऐसे नर मेध की निंदा हम सब कड़े शब्दों मे निंदा करते हैं और खंडन भी करते हैं । भारत एक शांतिप्रिय देश है जहां की संस्कृति भी पेरिस की तरह ही सम्मिश्रित संस्कृति है ।  सहनशीलता और सहिष्णुता मे भारतीय संस्कृति बेजोड़ रही है । इसे बनाए रखना है । 

Tuesday, November 10, 2015

बिहार के चुनाव परिणाम - लोकतंत्र की विजय

बिहार प्रदेश अनेक विशिष्टताओं के कारण देश भर मे अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है । यह पुन: पुष्ट हो गया है कि बिहार की आम जनता मे एक विशेष राजनीतिक सोच और जागरूकता मौजूद है जो कि अन्य राज्यों की तुलना मे कहीं अधिक सतर्क और सक्रिय है । चाहे जातिगत समीकरण जो भी हों, जो कि आज देश भर मे व्याप्त है । हर राजनीतिक दल जातिगत समीकरणों का फायदा हर चुनाव मे उठाती रही है । यह जो चुनाव बिहार मे संपन्न हुए हैं, विधान सभा के - वे वास्तव मे एक नया इतिहास रच गए हैं । सत्ताधारी पार्टी की ऐसी करारी हार, एक नई जनचेतना को जागा गया है । पराजित पार्टी चाहे वह कोई भी हो, इस कदर बे आबरू हो जाएगी इसका अंदाजा किसी को नहीं था और किसी ने आईसीकल्पना नहीं की थी । इस चुनाव का एक और महत्वपूर्ण पहलू यहभी रहा कि सारे देश की नजर इस ओर रही । क्योंकि इस चुनावी नतीजों मे प्रधानमंत्री जी साख और रसूख दांव पर लगी थी जिसे उन्हींके पार्टी के नुमाइंदों ने लोगों के सामने पक्षेपित किया था । वे लोग खुलकर कह रहे थे बिहार के परिणाम राष्ट्र की सोच को प्रतिबिम्बित करेगा और प्रभावित भी करेगा । ऐसा ही हुआ .। भा ज पा की पराजय राष्ट्र की सोच को प्रतिबिम्बित करती है, यदि हम भाजपा के प्रवक्ताओं की मान लें तो । निश्चित ही इस पराजय से भाजपा की साख पर असर तो पड़ा ही है, चाहे भाजपा के लोग इसे स्वीकार करें या न करें । यदि जीत जाती तो उसे तो भाजपा के प्रचारक लोग समूचे राष्ट्र का जनादेश कहते । लेकिन अब वे इससे मुकर क्यों रहे हैं ? यह भी देखा गया है कि पराजय के बाद बड़ी पार्टियां ( कांग्रेस और भाजपा दोनों ) अपने प्रचार नायकों की विफलता को छिपाने का प्रयास करती हैं और उन्हें बेदाग बनाए रखती हैं । और वे पराजय का ठीकरा किसी और के सिर फोड़ती रहती हैं । जो उनके प्रचार अभियान के नायक रहे हैं उन्हें पूरी तरह अपनी सुरक्षा के घेरे मे ले लेते हैं । पार्टी के भीतर कोई उनकी आलोचना नहीं करता । उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती ।
पराजया के कारणों की समीक्षा के नाम पर एक औपचारिकता का निर्वाह कर लिया जाता है । कोई भी ईमानदारी से पराजय के कारणों का आकलन नहींकारता । यह एक परिपाटी है । जो भी हो, यह पार्टी का अंदरूनी मामला है जिस पर आम जनता को बोलने का कोई अधिकार नहीं है ।
किन्तु आम जनता भाजपा के पराजय के कारणों को जानती है । अहंकार, बड़बोलापन, अनावश्यक मुद्दों को टूल देना, आपसी कड़ुवाहट, प्रतिद्वंद्वी पर व्यक्तिगत आक्षेप, ध्रुवीकरण की राजनीति, विभाजन की राजनीति, स्वयं को अजेय समझने का दर्प और अहंकार, अनावश्यक जातिगत, संप्रदायगत, धरमागत टिप्पणियाँ करना, जमीनी सच्चाईयोंकों ताक पर रखकर अवास्तविकताओं का परचा करना, स्थानीय स्थितियों से अनभिज्ञता, स्थानीय नेताओं की अनदेखी   और सबसे ऊपर अपने प्रतिद्वंद्वियों की ताकत का सही पूर्वानुमान करने मे भारी भूल कर बैठना है । भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का व्यवहार भी लोगों को नागवार गुजारा है । प्रधान मंत्री का तीस से अधिक सभाओं को संबोधित करना जिसमें बिना तैयारीके एक ही मुद्दे को दुहराना और प्रतिपक्ष वालों पर अनावश्यक अहदर शब्दों मे उनका मज़ाक उड़ाना आदि प्रचार अभियान के निषेधात्मक पक्ष हैं । विकास को केंद्र मे रखकर यदि भाजपा का प्रचार ईमानदारी से किया जाता तो तो कुछ लाभमिल सकता था । आज समस्या यह है कि हर राजनीतिक दल यही कहता है कि देश या राज्य मे जोभी कुछ थोड़ा सा विकास (जैसा ) हुआ है तो वह सिर्फ उन्हीं के शासन काल मे हुआ है और उससे पहले कुछ भी नहीं हुआ था, जैसे इन 67 वर्षों मे कुछभी नहीं हुआ, आज का भारत केवल 14 महीनों मे ही वर्तमान स्थ्तिती मे पहुंचा है । यह सोच और इसकी शब्दावली मे परिवर्तन लाना चाहिए । अब जन सामान्य केवल शुष्क भाषणों को नहीं सुनना चाहती । आम जनता ठोस नतीजे चाहती है जो दृश्य हो । केवल श्रव्य न हो ।
निश्चित ही बिहार के परिणाम देशवासियों को लोकतन्त्र के प्रति नई आशा जगाते हैं । वोट या मताधिकार बड़ी से बड़ी राजनीतिक पार्टी को धूल चटा सकता है । किसी भी पार्टी का दंभ, अहंकार और बड़बोलापन और परस्पर अपमान जनता को सही नहीं लगते । 

Saturday, November 7, 2015

राष्ट्र की उच्च शिक्षा प्रणाली की गुणवत्ता के मूल्यांकन की आवश्यकता

आज देश भर मे लगभग चारसौ पचास विश्वविद्यालय हैं जो कि यू जी सी के अधिकार क्षेत्र मे आते हैं , इनके अतिरिक अन्य तरह के व्यावसायिक व इतर डीम्ड यूनिवर्सिटी एवं राष्ट्रीय महत्व के संस्थान पेशाई
( प्रोफेशनल )  और गैरपेशाई ( नॉन प्रोफेशनल ) उपाधियों के लिए शिक्षण उपलब्ध करा रहे हैं । इन सबका विभाजन सरकारी और गैरसरकारी श्रेणियों मे किया गया है । सरकारी संस्थान जो मानवसंसाधन विकास मंत्रालय के अधीन, यू जी सी द्वारा अनुदानित होते हैं और जिन के अकादमिक एवं प्रशासनिक  गतिविधियों पर केंद्र सरकार का नियंत्रण होता है । देश मे करीब 20 केंद्रीय विश्वविद्यालय मौजूद हैं । राज्यों मे भी अपने विश्वविद्यालय हैं  जो यू जी सी और राज्य सरकारों के वित्तीय प्रबंधन से चलते हैं । पिछले कुछ दशकों से भारत सरकार ने निजी क्षेत्र में भी उच्च एवं तकनीकी तथा व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करने के लिए शिक्षण संस्थानों को अनुमति दी है । ऐसे संस्थान यू जी सी के दायरे में नहीं आते । वे पूर्ण रूप से वित्तीय एवं इतर प्रशासनिक मामलों मे स्वतंत्र और स्वायत्त  संस्थाएं हैं । ऐसे संस्थानों के पास अत्याधुनिक संसाधन उपलब्ध हैं साथ ही इनमें बड़े पूँजीपतियों का अकूत पैसा लगा है । ये बहुत कल्पनातीत मोटी रकम फीस के रूप वसूल कर उत्तम और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करते हैं । ये अपनी डिग्रियाँ स्वयं देते हैं जो कि सारी दुनिया भर में मान्य होती हैं । आज देश मे गुणवत्ता के लिए इन्हीं शिक्षण संस्थाओं का बोलबाला है । यहाँ से शिक्षा प्राप्त व्यक्ति निजी क्षेत्र की कंपनियों एवं इतर तकनीकी व गैर तकनीकी क्षेत्र में ऊंचे पदों पर अत्यंत लाभप्रद वेतन पाते हैं । आज हमारी पारंपरिक विश्वविद्यालयी व्यवस्था सवालों के घेरे में आ गई है । केंद्रीय और राज्य शासित विश्वविद्यालय दोनों इस सत्य साक्षी हैं कि पिछले दो दशकों में शैक्षिक स्तरों मे निरंतर गिरावट आई है और यह गिरावट दिनों दिन बढ़ती जारही है । इसका एक सबसे प्रमुख कारण सरकारों की उच्च शिक्षा के प्रति बढ़ती उपेक्षा । यही स्थिति स्कूली शिक्षा की भी है । सरकार इतर वोट लुभावनी आर्थिक और सामाजिक पापुलिस्ट  योजनाओं में करदाताओं का पैसा मनमाने ढंग से खर्च कर रही है और शिक्षा के क्षेत्र की अनदेखी कर रही है । परिणामस्वरूप आज देश के अधिकतर विश्वविद्यालयों मे पिछले बीस - तीस बरसों से प्राध्यापकों की नियुक्तियाँ नहीं हुईहाइन , यदि कहीं कहीं हुईं भी हों तो वह नगण्य सी हुई हैं । वरिष्ठ प्राध्यापाक और प्रोफेसा लोग सेवानिवृत्त हो रहे हैं, उनकी जगहें बरसों से खाली पड़ी हैं । गुणी रचनात्मक दृष्टि के ज्ञान सम्पन्न वरिष्ठ प्रोफेसर  विश्वविद्यालयों से अवकाश प्राप्त कर जा रहे हैं, उन्हें  और कुछ समय के लिए रोक कर उनकी सेवाएँ लेने का कोई प्रावधान नहीं है, यदि कहीं किसी नियम के अनुसार उन्हें रोक रखना भी चाहें तो विश्वविद्यालयी प्रशासन तथाकथित छात्र एवं अन्य राजनीतिक संगठनों के खौफ से डरकर उत्तम कोटि के सेवा निवृत्त प्राध्यापकों/प्रोफेसरों की सेवाएँ लेने मे असमर्थ हैं । कई राज्यों मे प्राध्यापकों की सेया निवृत्ति की आयु केवल 55 या 58 या 60 वर्ष है  । जब कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों मे यह आयु सीमा 65 वर्ष तक की है ।  इस प्रकार की असमानता से भी अनेक असंगतियाँ उपजी हैं । 65 वर्ष के बाद भी कई प्राध्यापक/प्रोफेसर अध्ययन-अध्यापन और शोध मे सिद्धहस्त हैं किन्तु उन्हें उन्हीं के विश्वविद्यालय सेवानिवृत्ति के दूसरे ही दिन से त्याग देते हैं, उनके प्रति अपंणाजनक व्यवहार किया जाता है । एक ओर विभागों में रिक्तियाँ बढ़ रहीं हैं, दूसरी ओर अस्थाई तौर पर ही सही, रिक्तियों की भर्ती, इन सेवानिवृत्त आचार्यों की सेवाएँ  ली जा सकती हैं, किन्तु ऐसा नहीं हो रहा है जिससे एक बड़ी शून्यता और अंतराल आ गया है । दक्ष, योग्य, ज्ञानी, शोधदृष्टि संपन्न वरिष्ठ आचार्यों की सेवा से देश की उच्च शिक्षा की संस्थाएं वंचित हो रही हैं । यदि सेवानिवृत्त पदों पर नियमित  रूप से हर वर्ष    प्राध्यापकों की नियुक्तियाँ हों तो यह समस्या पैदा नहीं होगी । जैसा कि पचास और साठ के दशक तक होता रहा है । आज शिक्षा के क्षेत्र मे नियमित तौर पर नियुक्तियाँ नहीं हो रहीं है और सरकारों का ध्यान इस ओर नहीं जा रहा है या सरकाएँ जानबूझकर इसकी आवश्यकता की अवज्ञा कर रहीं हैं । सरकारों की यह उदासीनता केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर एक समान है । वार्षिक निर्धारित वित्तीय आबंटन आज विश्वविद्यालयों के लिए सरकार नियमित रूप से नहीं कर रही है। शिक्षा के लिए निर्धारित योजना राशि अन्य जनलुभावनी योजनाओं के लिए डाइवर्ट कर दिया जाता है । विश्वविद्यालय प्रशासन सरकारों के हाथों मजबूर है । राज्य के अधीन विश्वविद्यालयों की वित्तीय हालत बहुत दयनीय है । कई सरकारें विश्वविद्यालयों को ही अपने खर्चे के स्रोतों  ( अपने आंतरिक संसाधनों से ) को तलाशने की सलाह देकर अपना पल्ला झाड रही है ।
नवगठित तेलंगाना राज्य मे विश्वविद्यालयों का हाल बहुत ही चिंताजनक है । लगभग दो वर्षोंसे दस विश्वविद्यालयों मे कुलपति की नियुक्तियाँ नहीं हुई हैं, कुलपति के बिना विश्वविद्यालयी व्यवस्था ठप्प हो गई है । शैक्षिक प्रशासन थम गया है । इस सबी विश्वविद्यालयों को सचिवालय के प्रधान सचिवों के हवाले कर दिया गया है, आई ए एस अधिकारियों को विश्वविद्यालयों का प्रभारी कुलपति बना दिया गया है जो किसी विषेयविद्यालय परिसर मे प्रवेश नहीं करते और अपने अधीन विश्वविद्यालयों का संचालन अपने ही कक्ष में  बैठकर करते हैं । छात्र परेशान हैं, प्राध्यापक परेशान हैं, कोई निर्णय समय पर नहीं हो पाता, प्रीक्षाएँ और अकादमिक गतिविधियां अवरुद्ध हो गई हैं लेकिन किसी को कोई चिंता नहीं है । रह रहकर छात्र आंदोलन कराते हैं, उनकी अनेकों समस्याएँ हैं, किन्तु कोई ध्यान देने वाला जिम्मेदार प्रशासक उपलब्ध नहीं ।
इधर केंद्र मे शोचछात्रों की फ़ेलोशिप को लेकर आंदोलन शुरू हो गया है।  नॉन नेट फ़ेलोशिप को निरस्त करने का विचार सरकार कर रही है जिसके विरोध मे शोधार्थी भड़क उठे हैं । जिस देश मे छात्र और प्राध्यापक वर्ग और शिक्षा तंत्र असंतुष्ट, अपर्याप्त और अव्यवस्थित होगा उस राष्ट्र का शैक्षिक भविष्य क्या होगा ? इसकी कल्पना की जा सकती है । हम अक्सर अपने देश के शिक्षण संस्थाओं को विश्व के प्रथम सौ में कहीं न पाकर दुखी हो जाते हैं लेकिन उनके कारणों की जांच कर उनका समाधान नहीं करना चाहते । सामाजिक असामानता, सामाजिक भेदभाव, वोट बैंक की राजनीति ही हमारी शासन प्रणाली के लिए सबकुछ है । हम चीन से प्रतिस्पर्धा की कल्पना करते हैं किन्तु हम अपने सकाल घरेलू उत्पाद ( GDP ) का केवल दो प्रतिशत ही शिक्षा पर व्यय कर रहे हैं ( लगभग ) ( सही आंकड़ों कि जांच करनी होगी ) वहीं चीन करीब आठ प्रतिशत धन व्यय करता है ।
शोध और उच्च शिक्षा की परीक्षाओं की प्रामाणिकता और गुणवत्ता पर सवाल उठ रहे हैं । पारंपरिक विश्वविद्यालयों मे स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में मूल्यांकन प्रणाली गंभीर रूप से विचारणीय है । मूल्यांकन प्रणाली  त्रुटिपूर्ण है जो दशकों से चली आ रही है । मनमाने ढंग से उत्तरपुस्तिकाएँ जाँची जाती हैं और अंक दिए जाते हैं जो कि निर्विवाद सत्य है । इस कारण प्रथम श्रेणी और विशेष योग्यताप्राप्त छात्र भी औसत दर्जे के साबित होते हैं ।  साक्षात्कारों में इन छात्रों की योग्यता का पर्दाफाश हो जाता है तो काफी निराशा होती है । शोध उपाधियाँ जब से यूनिवर्सिटी मे अध्यापक वृत्ति  के लिए अनिवार्य कर दी गयी, तब से शोध का स्तर बुरी तरह से प्रभावित हुआ है । यह एक अति महत्वपूर्ण क्षेत्र है जिस ओर शिक्षाविदों का ध्यान जाना चाहिए और तत्काल इसे दुरुस्त करना होगा ।  आज हमारे देश मे कहीं कुछ गुणवत्ता बची है तो वह आई आई एम  और आई आई टी संस्थानों में ही बची है, ऐसा माना जाता है । किन्तु इनकी भी गणना विश्व के सर्वश्रेष्ठ संस्थाओं में नहीं होती, यह विचारणीय है । आज़ादी के बाद हमें उत्तरोत्तर हर क्षेत्र में बेहतर से बेहतर बनाना चाहिए था, किन्तु ठीक इसके उलट हो रहा है । शिक्षा के क्षेत्र मे हमने गुणवत्ता के क्षेत्र मे श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर होने के बजाय श्रेष्ठ से निम्नतम की ओर जा रहे हैं । यह चिंता का विषय है । निजी विश्वविद्यालय और विदेशी विश्वविद्यालय जो कि हमारे देश मे आर्थिक उदारीकरण, बाजारवाद, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नीति के अंतर्गत जो अपना जाल फैला रहे हैं , वहीं अपेक्षित गुणवत्ता देखी जा सकती है । लेकिन ये विदेशी विश्वविद्यालय और शिक्षण संस्थाएं भीषण रूप से महंगी हैं जिनमें सामान्य व्यक्ति अपने बच्चों को नहीं दाखिल कर सकता ।

Wednesday, November 4, 2015

सहिष्णुता और असहिष्णुता पर बहस और जमीनी सच्चाई -

यह अत्यंत दुखद स्थिति है कि आज देश में एक विचित्र तरह की बहस हो रही । कौन सहिष्णु है और कौन असहिष्णु ? विचारधाराओं  की टकराहट लोकतन्त्र में सामान्य है और होनी चाहिए । सिद्धान्त, मान्यताएँ और और विचाधाराएँ असंख्य होती हैं और सभी मान्यताओं और विचारधाराओं को स्वाभाविक रूप से विकसित होने का माहौल लोकतंत्र की बुनियादी मांग होती है । आपसी खंडन-मंडन किया जा सकता है किंतु इस बौद्धिक प्रतिस्पर्धा में हिंसा एवं प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होता । सत्ता हो या अन्य विपक्षी राजनीतिक दल हों, किसी को जन सामान्य पर हमला करने या जान लेने का अधिकार संसार का कोई भी सभ्य समाज नहीं देता । भारत एक महान सभ्यता है क्योंकि यह अनेक समुदायों का समुच्चय है और इतने वैविध्य वाले लोगों मे कई विषयों पर  मतैक्य असंभव है । परंतु मतभेद का अर्थ किसी पर भी हमला करना नहीं होता । हर सामान्य नागरिक को जीवन जीने का मौलिक अधिकार प्राप्त है जिसे हमारा संविधान पुष्ट करता है । निजी खान-पान, आचार-विचार-व्यवहार की छूट और अधिकार हर नागरिक को इस देश मे प्राप्त है, फिर कोई समुदाय अन्य समुदाय के लोगों पर केवल उस समुदाय विशेष के खान-पान के तौर तरीकों को मुद्दा बनाकर अपने सामुदायिक अथवा वैचारिकता को सिद्ध करने के लिए अराजकता फैलाना कहां का न्याय है ? आज देशवासियों को गाय और गोमांस - का मुद्दा विकराल भयावह शक्ति बनकर आतंकित कर रहा है । इतने बरसों तक यह कभी मुद्दा नहीं बना था, फिर आज क्यों बन गया ? आज तक किसी को पड़ोसी की रसोई मे क्या पाक रहा है, पड़ोसी क्या खाता है, इसकी चिंता कभी नहीं थी । यह कोई बहस का वियशय कभी नहीं था । फिर आज क्यों हो गया ? क्या तथाकथित सत्ता पक्ष  और अन्य लोग भी यह भूल गए हैं हैं की भारत की सांस्कृतिकता बहुआयामी और बहुलतावादी है । मजहब, मान्यताएँ मनुष्य के बनाए होते हैं और ये सिद्धान्त मनुष्य के लिए होते हैं। मनुष्य सिद्धांतों के लिए नहीं होता । मजहब भी मनुष्य के लिए निर्मित एक आस्था है, मनुष्य- मजहब के लिए नहीं होता । मजहब मनुष्य के लिए होता है । मनुष्य की सत्ता, अस्तित्व और अस्मिता इन सबसे ऊपर है, सुप्रीम
है । मनुष्यत्व को ताक पर रखकर धर्म, मजहब के उन्माद में अपनी बात को ज़बरदस्ती मनवाने की कोशिश करना और यदि न मानें तो उन्हें नेस्तनाबूद करने का प्रयत्न करना इस देश के लिए घातक है । ऐसी अवसर पर समाज मे सदभावना और विश्वास पैदा करने के लिए लोकनायक ( जो भी है ) उसे आगे आकार मोर्चा संभालने की आवश्यकता है ।शीर्ष पर बैठे नेताओं का यह कर्तव्य है की जनता में फैले भय और अनिश्चितता की स्थिति को संभालें और ऐसे लोगों को नियंत्रण मे लाएँ जो देश की उदारवादी सांस्कृतिक चेतना को भंग करते हैं, निर्दोष जन सामान्य पर हमले करते हैं और हिंसा का मानौल रचते हैं । विरोश प्रदर्शन के तरीकों पर भी काफी जमकर बहस हो रही है । विरोधी स्वरों पर सवाल किए जा रहे हैं । विरोध सामयिक ही तो होता है, यदि इससे पूर्व की घटनाओं पर, उस समय इस तरह की प्रतिरोध की संस्कृति नहीं पनपी थी तो क्या आज कोई विरोध नहीं कर सकता  क्या ? वर्तमान की स्थितियों पर विचार करने के बदले लोग विरोध करने वालों की नीयत पर सवाल उठा रहे हैं और उन्हें अपनी क्षिदर राजनीति से जोड़ कर विरोध के महत्व को कमतर आँकने का षडयंत्र रच रहे
हैं । जो भी हो, आज देश मे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर खतरा तो मंडरा रहा है, इसमें दो राय नहीं है ।
राजनेता सारे के सारे पार्टी लाईन पर ही बहस करते हैं और परस्पर तू तू मैं मैं ही करते रह जाते हैं, एक दूसरे पर कीचड़ उछलने के सिवाय राजनेता जन सामान्य की भावनाओं को समझ पाने में नितांत असमर्थ और असहाय ढंग से पेश आ रहे हैं । नेताओं को धैर्य के साथ जनता की भावनाओं को समझकर उनका साथ देना होगा । जनता और नेता यदि आमने सामने हो जाएँ - तो परस्पर टकराहट ही होगी । और यह टकराहट लोकतन्त्र के लिए घातक है । जनप्रतिनिधि का यह कर्तव्य है की वह अपनी प्रजा के घावों पर मलहम लगाकर उसका उपचार करे, न कि उसके घावों को कुरेदकर उसे अधिक तकलीफ पहुंचाए । 

Wednesday, July 29, 2015

देश के इस सदी के महानायक के निधन से सारा देश शोक संतप्त है -

डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम भारत के सच्चे अर्थों मे महानायक थे/हैं । आदर्श शिक्षक, चिंतक,वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी, राजनयिक, अध्येता, कलाप्रेमी, साहित्यप्रेमी, मानवतावादी, महामानव थे वे । ऐसी विभूतियाँ सदियों मे एक बार जन्म लेती हैं और अमर जो जाती हैं । कलाम साहब के लिए मृत्यु एक भौतिक सत्या भले ही हो लेकिन वे देशवासियों के हृदय मे हमेशा हमेशा के लिए अभिन्न होकर रच बस गए हैं । उन्हें हमसे कोई ताकत पृथक नहीं कर सकती । जो व्यक्ति, जिसका अस्तित्व, जिसकी मौजूदगी, शारीरिक से कहीं अधिक रूहानी हो जाए वह किसी से कैसे अलग हो सकता है । इस देश के हर शख्स मे वे बस गए हैं । उनकी आवाज़ देश के किसी न किसी कोने से हर पल सुनाईदेती थी और आगे भी उनकी आवाज़ की अनुगूँज हवाओं मे फिज़ाओं मे सदैव कंपन्न पैदा करती रहेगी । जो उनहमे एक बार दूर से ही सही देख लेता था उन्हें कभी नहीं भूल सकता था, एक बार जो उनहमे प्रत्यक्ष देखे या सुन ले वह उनकी आवाज़ और उनके चेहरे को कैसे भूल सकता है ।उन्मने अपार ऊर्जा कूट कूट कर भारी हुई थी । वे ऊर्जा के पॉवर हाऊस थे । उम्र उनको छू भी नहीं सकी थी । वे निरंतर कार्यरत रहने वाले कर्तव्यनिष्ठ कार्यकर्ता थे । देश के एक सिपाही थे जो देश की तीनों सेनाओं के सेनाध्यक्ष भी थे ( पाँच वर्षों के लिए - राष्ट्रपति पद पर रहते हुए )
उनका जीवन दर्शन अद्भुत था । वे सत्य के पुजारी थे । निराडंबर, निडर, स्पष्टवादी, पारदर्शी, आध्यात्मिक चेतना से युक्त, ईश्वर तत्व मे विश्वास करने वाले, आस्थावान, अपने कर्तव्य और दायित्व के प्रति प्रतिफल जागरूक और सतत परिश्रमी स्वभाव के युगपुरुष थे वे । उनमें कोई भी ऐब नहीं दिखाई देती थी । वे एक ऋषि थे, स्वयं एक साधक थे । सरलता,सादगी और आत्मीयता उनके व्यक्तित्व के आकर्षण थे । देश की युवा पीढ़ी के प्रति वे वीचेश चिंतित रहा कराते थे । बच्चों से विशेष प्यार थी उन्हें । देश को बदलने की ताकत युवा पीढ़ी मे ही वे मानते थे । समाज को बदलने के लिए, समाज मे व्याप्त बुराइयों को दूर करने के लिए तीन शक्तियों का उल्लेख वे करते थे- माता,पिता और शिक्षक । गुरु का स्थान अत्यंत पवित्र और पावन होता है।
उनमें उच्च कोटी नायकत्व के लक्षण  विद्यमान थे । कठिन कार्य को स्वीकार करना नायक का लोकसन होना चाहिए । विफलता का दायित्व स्वयं जो लेता हो और सफलता का श्रेय जो साथियों को देता हो वही सच्चा नायक होता है । उनमें यह गुण विद्यमान था ।
मनुष्य का जन्म संसार मे कर्म करने के लिए होता है । निष्क्रिय और निठल्ले बैठे रहने के लिए नहीं होता । कर्मवाद के वे दृढ़ पक्षधर थे । हर व्यक्ति का एक कर्म निर्दिष्ट होता है, कोई कम छोटा या बड़ा नहीं होता । कर्म, कर्म होता है ।  भय को मन से निकाल दो, डरो मत, कभी मत डरो, आगे बढ़ो, विफलता का सामना करना, मुक़ाबला करना सीखो, सफलता मे घमंडी मत बनो । सफलता को भी सही तरीके से स्वीकार करना चाहिए और उसे सही ढंग से आचरण मे लाना चाहिए । विफलता मे निराशा अकर्मण्य और निष्क्रिय बना देती है इसलिए गिरकर पुन: उठो और काम पर लग जाओ - ये कलाम साहब के संदेश हैं । देश के प्रति अप्रतिम लगाव और आत्मीयता उनमें जुनून की हद तक मौजूद थी ।
वे एक कर्मयोगी थे । उनका जीवन अनुकरणीय और चिरस्मरणीय है । उन्हें शत शत नमन शत शत नमन ।